मैं गौमाता हूँ। सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की माता। मेरे ही भीतर ३३ कोटि देवताओं का वास है। भगवान् श्रीकृष्ण मेरे पीछे पीछे नँगे पाँव दौड़ा करते थे। माँ के दूध पर वैसे तो केवल उसके बच्चे का ही अधिकार होता है, परन्तु मैंने अपने दूध से त्रिलोकी को तृप्त किया। शिव पर भी मेरे ही दूध से अभिषेक किया जाता है। यज्ञ में भी मेरे ही घी की आहुति दी जाती है। मैंने अपना सर्वस्व इस ब्रह्माण्ड की सेवा में दे दिया और बदले में अपने लिये कोई चाह नहीं की। जो रूखी सूखी घास मुझे खाने के लिये दी गयी, मैं उसी से तृप्त हो गयी।

परन्तु समाज के कुछ लोग जब सिर्फ दूध से संतुष्ट नहीं हुए तो उन्होंने मुझे काटना शुरू किया। कत्लखानों में मेरे सर पर हथौड़ों से बहुत जोर से प्रहार किए जाते। उस दर्द को मैं सह नहीं पाती और मेरी चीख निकल जाती। मैं पूरी ताकत से भागने की कोशिश करती पर इतनी मजबूत रस्सियों से मुझे बाँधा गया होता है कि वो रस्सियां टूटती ही नहीं। जब हथौड़े मार मारके मेरे सर और माथे की हड्डियां टूट जातीं तो मैं नीचे गिर जाती। फिर तेज़दार हथियार से मेरा गला रेत दिया जाता और मैं तड़पती हुई, दर्द से कराहती हुई अपनी मौत का इंतजार करती। तब मुझे अपने बच्चों की याद आती। मैंने अपना सब कुछ अपने बच्चों पर लुटा दिया, पर उसके बाद भी ये इतने क्रूर हो गये कि मुझे ही मारके, मेरा मांस तक खा जाते।

कहीं कहीं तो मुझे उल्टा टांग दिया जाता और मेरे पूरे शरीर पर उबला हुआ पानी डाल दिया जाता। उस उबले हुए पानी से जब मेरा चमड़ा नरम हो जाता तो फिर उसे उतारा जाता। मेरे प्राण निकलने का इंतजार भी नहीं किया जाता और मेरे सामने ही मेरा सारा चमड़ा उतार लिया जाता। और फिर मुझे तड़प तड़प कर मरने के लिये छोड़ दिया जाता।

मैंने तो हर जीव से प्रेम किया। दया मेरा स्वभाव है। परन्तु जो मेरे दूध का व्यापार करते, उन्हें भी मुझपे दया नहीं आती। मेरे बच्चे को जन्म लेते ही मुझसे दूर कर दिया जाता और उस मेरे नन्हे से बच्चे को भी कत्लखाने भेज दिया जाता, जहाँ उसकी भी निर्मम हत्या कर दी जाती। मशीन से मेरा सारा दूध निकाल लिया जाता। उसी दूध को और उससे बनने वाले पदार्थों को लोग खाते, बिना यह जाने कि उस दूध पर सबसे पहला अधिकार मेरे बच्चे का था, जिसे मार दिया गया। और उसी दूध से बनी मिठाइयों से लोग उत्सव मनाते हैं। उसी दूध को पूजा में चढ़ाया जाता है।

जिन कृष्ण को मैं जान से प्यारी हूँ, उन्हें मेरे मृत बच्चे के भाग का दूध चढ़ाओगे तो क्या वो प्रसन्न होंगे?? नहीं नहीं… मेरे गोपाल भी रो देंगे। वो मुझे दुःखी देख हो नहीं सकते। अपनी मधुर मधुर बंसी बजाके मुझे प्रसन्न किया करते थे और उनकी बंसी ध्वनि सुनके मैं उनके पास दौड़के पहुँच जाया करती थी।

परन्तु आज मैं दुःखी हूँ। मुझे इतना कष्ट दिया जा रहा है, जो बर्दाश्त की हदों से कहीं ज्यादा है। परन्तु इसके बाद भी मैं किसी को बद्दुआ नहीं देती। यदि मैंने गलती से भी बद्दुआ दे दी, तो तीनों लोकों में हाहाकार मच जायेगी। पर क्या करूँ, माँ हूँ न!! खुद कष्ट झेल सकती हूँ। अपने बच्चों को कष्ट नहीं दे सकती।

परन्तु मैं अपने बच्चों से कुछ मांगती हूँ। क्या मुझसे प्रेम करने वाले मेरे बच्चे अपनी माँ के लिये इतना करेंगे? यदि हाँ! तो फिर आज संकल्प करो कि आज के बाद मेरे चमड़े से बने जूते, जैकेट, बैग आदि का प्रयोग कभी नहीं करेंगे। दूध वाली डेरी का दूध कभी नहीं लेंगे और बाजार से दूध की बनी हुई कोई भी चीज खरीदकर नहीं खाएंगे। यदि क्षमता हो तो गौशालाओं को और बढ़ाएंगे। और वहां पर गौझरन और गोबर के पदार्थ अधिक बनायेंगे। मेरे गोबर की बनी आर्गेनिक खाद से तैयार हुई फसल से कोई बीमारी नहीं लगती। अंत्येष्टि में गोबर की लकड़ी का प्रयोग हो तो कम से कम १०-१५ साल के २ पेड़ बचेंगे। जिससे पर्यावरण भी शुद्ध बना रहेगा। एक वर्ष में लगभग ५ करोड़ लोगों का अंतिम संस्कार होता है, जिससे १० करोड़ पेड़ भी कटने से बच सकते और लोगों को रोजगार भी मिलेगा।

गौझरन से कैंसर तक की बीमारी भी ठीक हो सकती है। कीटनाशक बनाये जा सकते। फिनाइल भी बनाया जा सकता। गोबर से पूजा के लिये धूप भी तैयार किया जा सकता। जब मुझे बचाके ही तुम मुझसे इतना लाभ ले सकते हो तो फिर मुझे क्यों दरिंदों के हवाले कर देते!! आज मैं फिर से रो रोके अपने गोविन्द को पुकारती हूँ। हे गोविन्द! हे गोपाल! हे कृष्ण अब तुम ही मेरा संकट हरने फिर से इस धरा पर अवतरित हो जाओ।

© सुमित कृष्ण (जम्मू)
वैशाख कृष्ण दशमी, विक्रम संवत २०७७
शुक्रवार; अप्रैल १७, २०२०

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